कविता संग्रह KAVI KA DESH KE PYARE BACHCHO KA AAVAHAN , FOOL KA TYAG

कविता संग्रह KAVI KA DESH KE PYARE BACHCHO KA AAVAHAN , FOOL KA TYAG

कविता संग्रह 

 
कविता संग्रह KAVI KA DESH KE PYARE BACHCHO KA AAVAHAN , FOOL KA TYAG

बच्चो की शक्ति 

1

उठो देश के प्यारे बच्चो 
तुम्हे उठाने आया हु ।
नहीं समय हैं अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हु।।

आलस में यदि पड़े रहोगे 
तो पीछे पछताओगे ।
जगने वाले आगे होगे
तुम पीछे रह जाओगे ।।

राह कठिन हैं जीवन पथ की
चलना सबको पड़ता हैं।
मंजिल उसको ही मिलती हैं
जो पहले चल पड़ता हैं।।

अगर समय के साथ चलोगे
कदम से कदम मिलोगे ।
कठिन राह भी सरल बनेगी 
नाम अमर कर जाओगे।।

जो सोया हैं वो खोया हैं
यही बताने आया हु ।
नहीं समय है अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हूं।।
 

2

चलो बनो तुम वीर सेनानी 
मातृ भूमि की रक्षा में ।
जीवन सुमन समर्पित कर दो
शौर्यता भरी परीक्षा में ।।

सीमा में तुम सीना ताने 
गीत जीत की गाओगे।
बलिदानो का अलख जगाकर
समर को मीत बनाओगे ।।

जल में थल में आसमान में
विजय ध्वजा फहराना हैं।
दुश्मनो की रुधिर धार से
सरिता कई बहाना हैं ।।

जो कर्ज हैं देश का तुममे
वह चुकवाने आया हू।
नहीं समय हैं अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हु।।

3

चलो पढ़ो फिर बनो बिसारद
शिक्षित सबको करना हैं।
शिक्षा की नव ज्योति जला दो
अज्ञान तिमिर को हरना हैं।।

तुम ज्ञानी विज्ञानी बनकर
नव विज्ञानं बताओगे।
देश की काया कल्प करोगे
खोजे नई कराओगे।।

तुम्ही देश के कर्णधार हो
तुम ही हो भावी नेता।
तुम्ही चिकित्सक अभियंता हो
रंग मंच के अभिनेता।।

मैं जीवन के सच्चाई का
पाठ पढ़ाने आया हूँ।
नहीं समय हैं अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हूँ।।

4

उठो चलो बैलो को लेकर
जोतो अपने खेतो को ।
कठिन परिश्रम हाथ बताओ
लेकर स्वजन समेतो को।।

देश में ला दो हरित क्रांति को
अपने साहस के बल बूतो से।
खेतो में हरियाली भर दो 
सीच के निज श्रम के जल से।।

भरो देश के भंडारो को 
दुर्भिक्ष काक न आएगा ।
सुख समृद्धि धाय के दाता
जय किसान कहलायेगा।।

मैं खेतो में खलिहानों में
श्रम करवाने आया हू।
नही समय हैं अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हू।।

 5

चलो करो सुभ कर्म धर्म से
धर्म एक मानवता हैं।
पशुओ को पीड़ा पहुचाये
वह भी तो दानवता हैं।।

तुम्हे मिलेंगे दीन दुखी तो
उनको गले लगाना हैं।
तुम अनाथ के नाथ बनोगे
जिनका नहीं ठिकाना हैं।।

देश राग में प्रीतितान हो
ऐसा स्वर साधना हैं।
सभी धर्म भाषा हो प्यारी
सच्ची ये आराधना हैं।।
 
प्रेम  पांस से देश बांधना
यही सीखने आया हूँ।
नहीं समय हैं अब सोने का
तुम्हे जगाने आया हूँ।।



फूूल का त्याग

(1)

कितना कोमल कितना निर्मल
सबके मन को भाता हैं।
स्वयं भले ही मिट जाए 
पर उपवन को महकता है।।

बेदर्द मौसम के मारो से
बरसात नीर की धारो से,
शरद की शीत फुफकारो से
ग्रीष्म की लू तपकारो से,
आंधी तुफानो से लड़कर
कंटक से बिध जाता हैं।

स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।।

(2)


रोता पतझड़ के होने पर
निज पल्लव के बह खोने पर।
वह खड़ा हुआ हैं कुटा पिटा
शत बार बना शत बार मिटा।।

पीड़ाओं को सहकर भी।
सुरभित कर देता मर कर भी।।



तिनका सा वह बिखर चले पर
गंध अमर कर देता है।
स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।।

(3)

हँसता हैं तो मधुकर झूम उठे
वह अधर रसी ले चूम उठे ।
वो पुष्प गगन गुंजार करे 
वह प्रणय प्रीति साकार करे।।

उसके प्रेम के रस पीने को।
हैं सालो लगे मनाने को ।।

मधुकर हैं काला कुरूप
पर उसकी प्रीति निभाता हैं।
स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।।

 (4)

ऋतुराज बंसन्त के आगत में
खिल उठता उसके स्वागत में।
संग समीर के झूम झूम कर 
मनो नाचे घूम घूम कर ।
न्योछावर कर अपना तन मन
सुरभित कर देता बन उपवन ।
शीश सुरो के चढ़ा सुशोभित 
किन्तु नही इठलाता हैं।
स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।।

(5)

लाडिया बनता मालाओ की
शीश में बधता वालावो की।
हार कंठ में राजाओ के
पंडित जी की पूजाओं के।
खुशी शोक में यज्ञ धर्म में
यही अग्रणी सर्व कर्म में 
दुःख सुख में शामिल सबके 
निज सर्वस्व लूटाता हैं 
स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।

(6)

कंटक में पलता बढ़ता हैं
वह कष्ट अनेको सहता हैं।
भला बताओ क्या लेता
पर सुरभित सबको करता हैं।।

अंतर द्वन्द का दुःख हरता।
नव स्फूर्ति मनो में भरता हैं ।।

हरे बेदना भरे चेतना 
पर हित में मिट जाता हैं।
स्वयं भले ही मिट जाय
पर उपवन को महकाता हैं।।



द्वारा

गौरव तिवारी
M.sc (CS), B.Ed